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टूटी छांहें बिखरी धुप
हरी घासें चट्टानों तले दबी
सूर्य गया बादल में छुप
तन्हाई गयी एहसास के समंदर में डूब
सुना मरघट बुझती राख
उल्लू की चीख गीदर की राग
भयानक कोहरा जिन्दगी की रात
नाकों में समाती अस्पताल की गंध
कौन खोले यह व्यर्थ का बंध
भिखमंगे की कछ्मछाहाट
कौन हरे यह जग का अंध
काँच सी फूटती पायल छनकती
अधरों पे रस है घोलती
बादल के बीच बिजली कौंधी
अमराईयों से धुप हो छनती
जुगनू चमके युग बीते
तेरे ही प्यार में हम हैं जीते
हर पल बीते स्वाति बूंद की चाह में
हर तन्हाई की शाम
और गम की रात हैं पीते !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 05-06-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
टूटी छांहें बिखरी धुप
हरी घासें चट्टानों तले दबी
सूर्य गया बादल में छुप
तन्हाई गयी एहसास के समंदर में डूब
सुना मरघट बुझती राख
उल्लू की चीख गीदर की राग
भयानक कोहरा जिन्दगी की रात
नाकों में समाती अस्पताल की गंध
कौन खोले यह व्यर्थ का बंध
भिखमंगे की कछ्मछाहाट
कौन हरे यह जग का अंध
काँच सी फूटती पायल छनकती
अधरों पे रस है घोलती
बादल के बीच बिजली कौंधी
अमराईयों से धुप हो छनती
जुगनू चमके युग बीते
तेरे ही प्यार में हम हैं जीते
हर पल बीते स्वाति बूंद की चाह में
हर तन्हाई की शाम
और गम की रात हैं पीते !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 05-06-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
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