शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

143 . पतझर सी खामोश

143 . 

पतझर सी खामोश 
वीरान ये जिन्दगी 
कैसी उबकाहट 
देख रहा हूँ दुनिया को निर्मेश 
रेत से निकलते पैर
दल - दल में धँसते 
बसंत की कहानी सुनाती 
जिन्दगी की ये खण्डहर ईमारत 
ज़माने के चौक पे हूँ खड़ा 
बन के वफ़ा का पुतला 
गुजरते हुए वही पत्थर मारते हैं 
जो घोंटते हैं वफ़ा का गला 
नजरों को नज़र से छुपाते हैं 
दिल की नजर को छुपायें तो जाने 
उठी उमंग को प्यार का नाम दें 
दुनियाँ की दीवार को तोड़कर 
हकीकत को अंजाम दे 
चंद दिनों की ये बहारें 
उस से भी कम ये सावन की झड़ी 
जिस्म में जलते अंगारे 
चाहती हैं पाने हुस्न के शोले !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  09-06-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

142 . तह पे तह बातों की दबी

142 .

तह पे तह बातों की दबी 
खुलती गाँठें गिरह की लड़ी 
जाम की तलब में उखरती साँसें 
कपड़ों की चोट से रोती पाटें 
महलो हवेलियों से झाँकती
वासना की नंगी आँखें 
नंगे जिस्म से खेलती 
जवानी की बाहें 
तराशे गढ़े से आती आवाज 
उघरी हुई सिसकारी की 
गोलाइयों पर से फिसलता हाथ 
कड़ेपन को गीला कर रहा 
डंके पर हो गई डंडे की चोट 
भंग हो गई टूट गई निकली आवाज 
ऊँचाईयाँ ऊँचे नीचे हुई 
धौंकनी सी बन गई 
ज्वार का समुद्र 
झील सी शांत हो गई
यह कोई नहीं है बात नयी 
रात पुरानी हो चुकी 
बिकती है हर आस यहीं 
बुढ़ापे का भी जवानी 
जवानी ही जवानी रात बन जाती है 
टूटता है हीरा 
हर बार उसकी दाम लग जाती है 
सिसकते रहते हैं अरमान 
सच्चाई भी घुट कर रह जाती है 
नजरों से कह लो जितना 
पर ओठों तक ही बात रह जाती है
सच्चाईयों पे लटके रहते 
वहाँ उसकी भी दाम लग जाती है 
तेरे लायक रहने से पहले 
बातें आम हो जाती है 
खनका लो पहले अँगना 
फिर सब कुछ हो जायेगा अपना 
वर्ना यूँ ही तरसते रहो 
देख - देख कर जलते रहो 
सच्चाई को समझ लो सपना !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 06-06-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से     

141 . टूटी छांहें बिखरी धुप

141 .

टूटी छांहें बिखरी धुप 
हरी घासें चट्टानों तले दबी 
सूर्य गया बादल में छुप 
तन्हाई गयी एहसास के समंदर में डूब 
सुना मरघट बुझती राख 
उल्लू की चीख गीदर की राग 
भयानक कोहरा जिन्दगी की रात 
नाकों में समाती अस्पताल की गंध
कौन खोले यह व्यर्थ का बंध  
भिखमंगे की कछ्मछाहाट
कौन हरे यह जग का अंध 
काँच सी फूटती पायल छनकती 
अधरों पे रस है घोलती 
बादल के बीच बिजली कौंधी 
अमराईयों से धुप हो छनती 
जुगनू चमके युग बीते 
तेरे ही प्यार में हम हैं जीते 
हर पल बीते स्वाति बूंद की चाह में 
हर तन्हाई की शाम 
और गम की रात हैं पीते !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  05-06-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

140 . प्यार के वादे भूल गये

140 . 

प्यार के वादे भूल गये 
वफ़ा के रिश्ते तोड़ दिये 
बीच मंझधार में लाकर नैया 
मुझको क्यों तुम छोड़ गये 
कहते थे साथ जियेंगे साथ मरेंगे 
न होंगे कभी तुमसे जुदा 
होगा हमारा साथ सदा 
न जाओ ऐ जाने वफ़ा 
हम तो हैं तुझपे फ़िदा 
गलियां सुनी कलियाँ रोये 
खिलने से पहले हम मुरझाये 
तूँ हँसती तो कलियाँ चटखते 
बागों में बहार आ जाये 
जैसे चंदा बादल से झाँके 
ऐसे ही तूँ मुझको लागे 
तेरे बिना मैं ऐसे तरपूं 
जैसे जल बिन मछली 
साँझ सवेरे मनवा रोये 
याद तेरी जब - जब सताये 
तेरे विरह की दर्द में 
मन मेरा रो - रो गाये !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  04-06-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

139 . मधुबन गाये गीत रसीले

139 . 

मधुबन गाये गीत रसीले 
झरने देते संगीत सुरीले 
मैं पागल प्यार में तेरे 
जाम बनाते तेरे नयन नशीले 
कोयल देती जब कूक 
तो दिल में उठते हूक 
प्यासे पंछी की तरह 
देखूँ अपलक तेरे नूर 
मधुबन गाते 
वर्षा के बूँदों में 
हो जायें मिलकर दोनों एक 
चारों तरफ छायी हरियाली 
देखो मौसम ये 
कैसी है रंग लायी 
हम दोनों दो मतवाले 
हमको देखे ये दुनियाँ वाले 
प्यार किसे कहते हैं 
जानेंगे तब ये दीवाने 
सब कुछ मिट सकता 
पर प्यार नहीं मिटता 
जिन्दा रहती है तब तक 
चाँद सितारे रहेंगे जब तक 
सब को सब कुछ मिल जाये 
हमें बस तेरा प्यार मिले 
मधुबन गाये गीत रसीले 
दुनियाँ की परवाह नहीं
बस दिल में तेरी चाह है 
दिन से लेकर रैन बीते 
बस मन में तेरी ही प्यास है 
प्यास बुझायें तेरे ओंठ रसीले 
दिल में यही बात है 
तूँ मुझ में मैं तुझ में 
जग से होकर दूर 
छोड़ कर सारे जग को 
एक हो चलेंगे सब कुछ भूल 
आहटें थम जायेंगी 
खिलेंगे बागों में प्रीति फूल 
मधुबन गाये गीत रसीले 
तुम तो ऐसी हो रूपसी 
फीकी है पूनम की चाँदनी 
देख तुझे चाँद भी शरमा जाये 
तुम हो ही ऐसी प्रेयसी 
मैं देखूं तुझको अपलक 
मेरे मन बस यही ख्याल आये 
मधुबन गाये गीत रसीले 
तूँ जब मेरे पास न होती 
दिल को मेरे चैन न आती 
तेरे गोरे बदन से 
चन्दन की खुसबू आती 
ओ मेरे जीवन साथी 
मेरे प्राण हैं तुझ में बसते 
तेरे बिना न अपनी कहानी 
तेरे बिना न ये जिंदगानी
मैं तेरा दीवाना बना 
बन गयी तूँ मेरी दीवानी 
जन्म - जन्म  का साथ रहा है 
मैं तेरा राजा बना हूँ 
तूँ बनी है मेरी रानी 
मधुबन गाये गीत रसीले !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  01-06-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से      

138 . जिन्दगी हम यूँ ही जी लेते हैं

138 . 

जिन्दगी हम यूँ ही जी लेते हैं 
हँसते - हँसते गम भी पी लेते हैं 
जीने का वादा किया था कभी 
इसलिए मरते - मरते भी जी लेते हैं 
ऐसी तो अब कोई चाह नहीं 
दिल में जीने की अरमां नहीं 
ज़माने को जितनी ताकत थी 
उसने न कोई कसर छोड़ी 
हम ही एक ऐसे हैं 
मौत को भी जिससे नफ़रत है 
आकाश में भी रहकर 
अंधकूप की तरह जी लेते हैं 
तेरे सारे शिकवे सही हैं 
वो तो मैं ही जन्म जैसी झूठ से हूँ जुड़ा 
मैं हूँ वो अछूत घड़ा 
पैरों की ठोकर भी सबके खाकर नहीं फूटा 
तेरे गालियों को सुनने के लिए 
कानों को खोल लिया है 
अश्रुओं को भी जब्त नहीं किया 
दिल को भी नश्तर चुभाने के लिए 
खुला मैंने छोड़ दिया है 
पर ये भी अब अभ्यस्त हो चुके हैं 
न समझोगे तुम 
इनकी बेवफाई बर्दाश्त करके 
कैसे हम जी लेते हैं 
तेरे बड़े - बड़े धमक सह लिए 
अब तेरे पास कोई बड़ी चेतावनी नहीं 
नये धमकियों से हम पैबंद लगा लेते हैं 
तुम्हे मेरे मरने पर 
शायद थोड़ा दुःख होगा 
अतएव निर्विकार जी लेते हैं 
मरूँगा भी तो तेरे आत्मा की शांति के लिए 
देख लेना उस दिन
किस कदर हम मौत भी पी लेते हैं !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  21-05-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से   

137 . किसे है जरुरत मेरी ?

137 .  

किसे है जरुरत मेरी ?
सिर्फ मेरे फर्ज को 
किसे फिकर है मेरी ?
सिवाय मेरे गम को 
मैं अभी न ही रहूँ 
तो क्या फर्क पड़ता है 
सिवाय मेरे मज़बूरी के 
तुरंत सपना समझकर सभी 
भूल जाएंगे तत्तक्षण मुझे 
तन्हा जिन्दगी की सुबह 
पहले ही दर्द की शाम बन गयी है 
मैं जिऊँ या मरुँ 
किसे फुर्सत है मेरे लिए
मेरा हर पल गम की जाम बन गयी है 
उजालेपन में ही मेरी जिन्दगी 
अमावश्या की शाम बन गयी है 
बस एक चाहत है मेरी 
या तो जिस्म ही मेरी जान छोड़ दे 
या दुनियाँ से दूर हो जाऊं मैं 
या दुनिया ही मुझसे दूर हो जाये 
मेरे वफ़ा का फ़साना 
हर गलियों में बेवफाई की है 
इस घुटन भरी जिन्दगी से 
मौत ही बेहतर है 
अब तेरे इंतजारी से अच्छा 
मेरा जनाजा निकलना ही बेहतर है !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  18-05-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से   

बुधवार, 29 अगस्त 2012

136 . आग में जितना ही तपे

136 .

आग में जितना ही तपे 
सोना होता है उतना ही कुंदन 
निराशा खाता है जितना ही मानव 
गर रखे रहा मात्र धैर्य 
तो वही बन जाता है मानव से महा मानव 
निराशा के बादल दूर हटेंगे जरुर
छिपा रहता है जैसे 
बादल के पीछे सूर्य 
ऐसे समय में 
हे ईश तेरा ही सहारा है 
दे के थोड़ी धैर्य तूँ 
लगा देता है सबका किनारा 
धैर्य ही है ईश्वर 
धैर्य ही है भाई 
कर्म को तुम समझ 
उसको बना लो साथी 
बादल के पीछे में 
सूर्य रत है जैसे कर्म में 
ऐसे ही गर लगे रहे तुम प्रयत्न में 
कैसे नहीं मिलेगी 
तुझको भला सफलता 
हार मानेगा तुझसे 
तब सारी विफलता 
ऐसी कोई बात नहीं 
जिसको तुम चाहो 
और कर न पाओ 
बस एक धैर्य के साथ 
कर्म में लगे रहने की 
है सिर्फ आवश्यकता !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  09-05-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

135 . कुछ क्षण तेरे संग जो बीते

135 . 

कुछ क्षण तेरे संग जो बीते 
अब फिर होंगे प्रतीत न होते 
दो साँसों के बीच 
रहती थी न कोई चीज 
दोनों ही मस्त हो लगाते थे गोते 
अब फिर होंगे प्रतीत न होते
उन साँसों के बीच में बातें होती थी वही 
जिसमे छिपी रहती थी 
भविष्य की निधि 
हर धड़कन में खुशियों के 
बीज थे बोते 
अब फिर होंगे प्रतीत न होते
रातों की एक दुरी 
बस थी एक मज़बूरी 
सारे शिकवे और गिले 
क्षण भर में ही थे दूर होते 
अब फिर होंगे प्रतीत न होते
होती थी हर शामें 
खाने के लिए कसमे वादे 
साथ जियेंगे साथ मरेंगे 
दिन और रातें 
अब फिर होंगे प्रतीत न होते
कुछ क्षण तेरे संग जो बीते !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  21-04-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से     

134 . दो पैसे क़ा प्रेम

134 . 

दो पैसे क़ा प्रेम 
है देखो फैसन बना 
जहाँ - तहाँ देखो 
वासना का बादल 
है कितना घना 
तरुण या तरुणी 
दोनों हैं इस कीचड़ में पड़े 
सोशायटी का अंग हैं समझते 
प्रेम का ये रूप देख 
शर्म से मेरी आँखें हैं गड़ी 
नैतिक स्तर देखो 
कितना है गिरा हुआ 
पिता संतान को नहीं समझा पाता 
भाई बहन को नहीं समझा पा रहा 
इस दुर्भावना से 
समाज कितना है क्षीण हो रहा 
देख दृश्य ये 
' सवेरा ' का ह्रदय 
क्रन्दन है कर रहा !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  20-03-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

सोमवार, 27 अगस्त 2012

133 . कैसा इश्क करने चला था बंदा

133 .

कैसा इश्क करने चला था बंदा 
देखो हो गया एक नया किस्सा 
चला था करने क्या 
पर देखो ये हुआ क्या 
भागोगे इस जंजाल से 
पर क्या है तेरी मजाल 
हो न सकेगा ऐसा तुम से 
रह जायेगा ये मलाल 
पहले जो सोंचा होता 
तो ऐसा कभी न होता 
गर जो हो गया 
तो फिर डर काहे का 
काहे का सोंचना 
कल क्या होगा माहे का 
पहले जो न सोंचा 
अब भी मत कुछ सोंच 
सोंच - सोंच के 
वृथा में क्यों देता है विष घोल 
ना जाने तूँ इस जीवन का 
क्या है भेद निराला 
जो होवत है सो होना था 
जो होना है सो होवेगा !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  26-03-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

132 . जब दो मदमस्त नजरें मिलती हैं

132 .

जब दो मदमस्त नजरें मिलती हैं 
तो प्याले की तरह 
कुछ पीना चाहती हैं 
और पिलाना चाहती हैं 
दिल में दोनों के 
कुछ उठता है 
कुछ कहने को 
कुछ सुनने को 
पर ऐसा होता कम है 
केवल रहस्य रहता है 
इसीका मुझको गम है 
कभी बात बढती नहीं है 
ना जाने क्यों 
उनके ओंठ हिलते नहीं हैं 
घुट - घुट कर रह जाता हूँ 
कुछ न उन से कह पाता हूँ 
तसल्ली के मलहम से 
जिगर का जख्म भर लेता हूँ 
मैं ही नहीं बहुत सारे 
भटक रहे हैं दर - दर 
जो हैं इश्क के मारे !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  27-03-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

रविवार, 26 अगस्त 2012

131 . जब आकाश आँगन खोले - खोले

131 . 

जब आकाश आँगन खोले - खोले 
पवन झकोरे 
और झुमका डोले हौले - हौले 
बागों में कोयल कूक  - कूक  कर 
कुछ - कुछ बोले - बोले 
लोचों से पायल बोले झुन - झुन 
रुत ये सुहानी बोल रही 
कुछ सुन - सुन 
बन के भौंरा 
आज कली का मकरंद चुसुंगा 
आज तुझे मैं 
सच्चा सुख दिखलाऊंगा 
क्या है जग की रीत 
तुझे आज बताऊंगा
चाँद से मुखरे पर 
है नागिन सी लटें बिखरी 
आ जाओ अब यहाँ 
ये हैं बाहों के घेरे 
कुचों पर तेरे केश जो बिखरे 
लगती हो पूरी देव प्रतिमा 
पुजूंगा तुझको नित्य सवेरे 
तेरे जो ये हैं केश घनेरे 
छाये हों जैसे घटा घोर अँधेरे 
तेरी ये काली रात से भी काली 
कजरारे तेरे नैना 
छायी है जिसपे रैना 
तेरी ये पंखुरियों सी ओंठ 
छेड़ रही मधुमुस्कान 
जी चाहता है करलूं 
झट से इसका रसपान !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 11-04-1980  

130 . पलक दो पलक

130 . 

पलक दो पलक 
देख पाया एक ही झलक 
तब से तूँ ही छा गयी है 
यत्र तत्र सर्वत्र 
चाल थी तेरी मतवाली 
जैसे कोई अल्हर जवानी 
जितनी ही हसीन 
उतनी ही कमसिन 
थी लगती बिलकुल ही नाजनीन 
लचकती शाख की तरह 
लचकती कमर थी 
लाल गुलाब की ही तरह 
लाल - लाल ओंठ थे 
दूध में घुली आलता की तरह 
लगती सुर्ख गुलाब थी 
महीन वस्त्रों के पीछे से 
झाँकती राज थी 
लाज से आँख उठा न पाया था 
यही कारण था कि 
अर्ध भाग ही देख पाया था 
अर्ध से ही पूर्ण का हो रहा भास था 
जैसे अर्ध चन्द्र से ही 
होता पूर्ण चन्द्र का आभास है 
मैं बना सकता था तुझको अपना 
पर देख कर तेरा जलवा 
खुद को अयोग्य ठहराया है !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  24-09-1980

बुधवार, 22 अगस्त 2012

129 . न मैं फरहाद हूँ न तूँ शिरी बन

129 .

न मैं फरहाद हूँ न तूँ शिरी बन 
न मैं जूलियट हूँ न तूँ रोमियो बन 
न मैं राँझा हूँ न तूँ हीर बन 
न मैं मजनू हूँ न तूँ लैला बन 
मैं मनु हूँ बस तूँ मेरी श्रद्धा बन 
आस पास न है कोई यहाँ 
आओ बनायें हम एक नयी दुनियाँ 
लोग अपने आप में इतने खो चुके हैं 
आस पास को इतना भूल चुके हैं 
रह गया है चारों ओर वन ही वन 
मैं मनु हूँ बस तूँ मेरी श्रद्धा बन 
अगर इस से आगे बढ़ना है 
दुनियाँ को कुछ दिखलाना है 
मैं पृथ्वीराज बनूँ तूँ मेरी संयोगिता बन 
शांत निस्तब्ध सो चूका ये संसार 
हम पर ही छोड़ा है इन्होंने सारा छाड़ - भार 
आओ मिलकर एक नया आयाम दें 
दुनियाँ को एक नया पैगाम दें 
जाग जाये जिस से 
इस धरती का कण - कण 
मैं मनु हूँ बस तूँ मेरी श्रद्धा बन !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 28-04-1980 
चित्र गूगल के सौजन्य से   

128 . मेरा मन मंदिर सा पावन

128 .

मेरा मन मंदिर सा पावन 
हुआ जिसमे प्रेम का आवाहन 
वर्ष दो वर्ष बीते सपनों को संजोये 
पाकर सबकुछ ही इसी अन्तराल में खोये
इस जीवन का मोल अब मैंने जाना 
मोल मिला नहीं बिक गया जमाना 
जीवन के गंगनागन में ही जब उसके 
दीप यादों के भी जला करेंगे मेरे 
स्वार्थ में सबकुछ पाकर भी वो अपने 
तरपती रहेंगी सदा निःस्वार्थ प्यार को मेरे 
खोया है नहीं कुछ खोकर कर भी उसने 
खोया है क्षणभर में अनमोल प्यार मैंने 
गर वो धोखा था तो भी हसीन 
खुदा करे ऐसा धोखा और दे मुझे !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 25-12-1983 
चित्र गूगल के सौजन्य से 

127 . खुदा न करे

127 .

खुदा न करे 
इश्क  
किसी को हो कभी 
यह एक ऐसी आग है 
जो तुझे जलाएगी 
बुझ न पाएगी 
पर 
खुद कभी 
हँसना गाना भूल कर 
सदा रोने लग जायेगा 
फिर हँसी तेरे ओठों पे 
न आ पायेगी कभी 
एक 
आग लिए सीने में 
घूमता रह जायेगा 
फिर न कहना 
' सवेरा ' ने 
न रोका कभी 
खो कर 
मुस्कानों की महफ़िल 
सदा के लिए 
गम के समंदर में 
डूब जायेगा 
प्यार 
पर ऐसी एक  
वरदान है 
जो न मिली 
अब 
तो फिर 
न पाओगे कभी 
जिन्दगी तो गुजर जायेगी 
पर 
जिन्दगी को 
जान न पाओगे कभी 
हँसी तो मिलेगी 
पर 
गम के मिठास को 
न जान पाओगे कभी !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 27-12-1983 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

सोमवार, 20 अगस्त 2012

126 . वक्त -वक्त की बात है

126 . 

वक्त -वक्त की बात है 
फूलों की सेज थी जो 
अब काँटों की बाग़ लगती है 
पल -पल हर पल में 
जो मधुर मिलन का स्वाद था 
अब पल -पल हर पल में 
जुदाई की एक आग है 
वक्त -वक्त की बात है 
कल तक जो सच था 
आज वो ही सपनों की एक याद है 
पल - पल में अपनों का जो एहसास था 
हर पल उन्हीं आँखों में 
नफरत की एक आग है 
वक्त -वक्त की बात है
जर्रा -जर्रा महकता था 
मिलन के एहसास से 
वहीं सिसकता है कोना - कोना 
जुदाई के नाम से 
दिन भी लिए हुए था 
रातों का एक एहसास 
लुट कर भी जी रहे हैं 
वक्त -वक्त की बात है
हँसते -हँसते भी आंसुओं को पी रहे हैं 
वक्त -वक्त की बात है !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 15-12-1983 
चित्र गूगल के सौजन्य से    

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

125 . मैं खोना चाहता हूँ

125 .

मैं खोना चाहता हूँ 
यादों का वो झुरमुट 
मिलन का वो एहसास 
स्पर्श की वो अनुभूति 
भूलना चाहता हूँ 
हर वो पल 
गुजरे जो साथ उनके थे 
चाहता हूँ मैं यह मानना 
सच नहीं वो सपने थे 
माना वो गैर नहीं अपने थे 
जो कुछ हुआ वो सब सपना था 
अपना उनका अपना हुआ 
मैं तो जन्मों का बेगाना था
उनको क्या दर्द होगा 
जब दर्द ही उनका पराया था 
उन्होंने कब कहा ?
मैं उनका था 
सच कहा उन्होंने 
मैं ही झूठा था !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 07-12-1983 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

124 . तेरी निगाहें खामोश नहीं हैं

124 .

तेरी निगाहें खामोश नहीं हैं
चुप सी रहती हैं 
पर शांत नहीं हैं 
कुछ खोजती रहती हैं 
रह - रह कर भटकती रहती हैं 
आँखों की दशा बराबर है 
चाहे वो हमारी हो 
या तुम्हारी हो 
इन आँखों में एक भूचाल है 
छिपा हुआ समाज का तिरस्कार है 
दबा हुआ प्रतिरोध का आग है 
समाज के सड़े हुए परम्पराओं से 
लड़ने को तैयार है 
कभी यह आँख ही तलवार है 
कभी यह आँख ही अंगार है 
कुचली हुई यह दावानल है 
या निकलती हुई चिंगारी है 
समाज के पाप को भी 
खुद ढ़ोती है आँखें 
खुद को रुला - रुला कर 
दिल को दुःखा - दुःखा कर 
रोती है ये आँखें 
अपने को भुलाती है आँखें 
गैरों के लिए दर्द है 
अपनों के लिए नफरत है 
पराये के दर्शन को भी 
तरपती है ये आँखें 
आईना झूठ बोल देता है 
पर सच ही कहती हैं आँखें 
शर्म हया इसलिए 
कि कसमें वादे तोड़ दिये 
अपने ही प्यार के लिए 
बनकर प्यार के लिए बेवफा 
भर ली है लाज आँखों में 
परम्परा के मज़बूरी में पिस - पिस कर 
यातनाओं से लड़ - लड़ कर 
झूठी प्रतिष्ठा के डर से 
चुरा ली है अपनों से ही अपनी आँखें 
सच का कर सके जो सामना 
रही न अब वो उनकी आँखें !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 08-12-1983 
चित्र गूगल के सौजन्य से  

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

123 . दिन के शोर में

१२३ .

दिन के शोर में
दिल का दर्द दब जाता है
टीस सी होने लगती है
रात होते ही
जब तेरा ख्याल आता है
हँस - हँस कर
हँसा - हँसा कर
रौशनी में
दुरी तेरी भुला देता हूँ
रात होते ही
तन्हाई का एहसास होता है
जख्मों को गले
लगा लेता हूँ
दुरी ?
बस इतनी सी है
खिड़की टूट जाए
तो ?
दरवाजा मेरा खुला है
रात होते ही
होठों को सी लेता हूँ
ख्यालों में जी लेता हूँ
जख्मों को गिन -गिन कर
रातें गुजार लेता हूँ
पास हो इतनी
की तुझे छू भी नहीं सकता 
न मैं हूँ दोषी
न तूँ है दोषी
दोष उस वक्त
जिसने मुझे
तेरे इतने करीब ला दिया था
सुना मेरा घट था
जब छलका तेरा पैमाना था
मिलन भी है
तर्पण भी है
एक चाहत भी है
आशिके इस दिल का
क्या हाल बना दिया
खुद को भुला दिया
खुद को मिटा दिया !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 05 - १२- १९८३
चित्र गूगल के सौजन्य से

बुधवार, 15 अगस्त 2012

122 . किस पाप कि तुने सजा दी है

१२२ .

किस पाप कि तुने सजा दी है
ये गम कि रात दी है
रोने को हर याद दी है
ना जाने ये किस पाप कि सजा दी है
ऐसे भी लोग जीते होंगे
सोंचा न था
खाली दिल से भी
जिस्म का बोझ ढ़ोते होंगे
सोंचा न था
बन के रह गया हूँ मैं
पैमाना खाली शराब का
सीप पानी से बाहर भी रह लेगा
ऐसा कैसे तूँ ने सोंचा
जिन्दगी में मेरे
इस तरह समा कर चली जाओगी
सोंचा न था
ये किस पाप कि तुने सजा दी है
ये गम कि रात दी है
रोने को हर याद दी है !

सुधीर कुमार ' सवेरा '  १०-12-1983
चित्र गूगल के सौजन्य से

121 . सबने मिलकर

१२१ .

सबने मिलकर
ये कैसा प्रतिशोध लिया
पहले मुझसे
खूब प्यार किया
फिर इस तरह
दरवाजे से फटकार दिया !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' १६-०१-१९८४
चित्र गूगल के सौजन्य से

120 . उनकी गलियाँ मुझे बुला रही

१२० .

उनकी गलियाँ मुझे बुला रही
पर उनको न है इंतजार मेरा
उनकी राहें मुझे खोज रही
उनको न है अब ख्याल मेरा
लगाव जितना उनसे था मुझे
अब उनकी गलियों से हो गया है मेरा
शकुन जितना मिलता था उनसे मिलकर
अब मिलता है
उनकी गलियों से गुजरकर
वो न कर पाए मुझ से वफ़ा तो क्या हुआ
उनकी गलियाँ न कर पायी मुझसे जफ़ा
जो किया उन्होंने मुझसे जफ़ा तो क्या हुआ
उनकी गलियों ने न एहसास मेरा भुला पाया
क्या हुआ जो वो मुकर गए अपने वादों से
उनकी गलियों ने न रुख अपना बदला
गम इस बात का नहीं
की हम मंजिल पर न पहुँच पाये
गम इस बात का है
कि हम मंजिल पर पहुँच कर
रुसवा हो गए
हमने न छोड़ा मंजिल का दामन
दामन मंजिल ने अपना छुड़ा लिया
बिछुड़ना न था हमको इस कदर
जिस तरह उन्होंने हमको बिसरा दिया 
खाकर सारे वादों कसमों को
बड़ी लज्जत से सब तोड़ दिया
उनको हो न हो ख्याल मेरा
पर मुझको रहेगा सदा इंतजार !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' 06-01-1984
चित्र गूगल के सौजन्य से

शनिवार, 11 अगस्त 2012

119 . अब क्या तेरा मेरा रिश्ता

११९ .

अब क्या तेरा मेरा रिश्ता
रख न पायी जब कोई नाता
रहने भी न दिया कोई वास्ता
भूल भी गयी जब इंसानियत का रिश्ता
छोड़ दी जब मानवता
तेरे मेरे बीच रह गया एक दर्द
जो है न बांटने के लिए
बस है वो सहने के लिए
कहूँगा बस इतना ही
रहने दे कम से कम
अपना ये दर्द का भी रिश्ता
मेरे रोने और गम का रिश्ता
मत करना कभी मजबूर मुझे
तोड़ देने को ये भी रिश्ता
अपना क्या रहा अब इस संसार से रिश्ता
गुमशुदा सा होकर कभी गुम हो जाऊँगा
बस रह जायेगा अपना ये दर्द का रिश्ता
जानकर ये मायूस न होना
मरते दम तक भी तेरा ये ' सवेरा '
तेरा ही बस इंतजार करेगा
समझ कर कभी तूँ दुःखी न होना
तेरी आत्मा पर सदा ही अधिकार रहेगा
समझकर भी कभी
ये समझने की
कोशिश न करना
पल -पल तुझे देखने को
तरसती हैं नजरें किसी की
बस आरजू है इतनी ही
तुझसे विनती है इतनी
जब मौत मेरे करीब हो
आकर खड़ी हो जाना
बस पल दो पल को मेरे करीब
इतना ही बस मैं कहूँगा
और बक - बक अपना बंद करूँगा
कितना हसीन होता है सपना
सच होता है बदसूरत कितना
तोड़कर राम से अपना रिश्ता
पता नहीं दिया है
कितने दिनों का बनवास
इस कलियुग की सीता ने !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०७-०१-१९८४
चित्र गूगल के सौजन्य से

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

118 . जब - जब पुराने रास्तों से गुजरा

 ११८ .

जब - जब पुराने रास्तों से गुजरा
रास्ते ने मुझ से पूछा
रुक - रुक कर
ठहर - ठहर कर
टोकते हुए यूँ पूछा
ऐ पथिक
जरा ये तो बता
क्यों आज तूँ है अकेला
कहाँ गया जो था हम सफ़र तेरा
मैंने सोल्लास पूछा
तूँ ही बता
लगता है तुझे क्या
तुने तो उनके क़दमों को
बार - बार बहुत बार था चूमा
तूँ ही बता गर वो
था हम सफ़र मेरा
फिर क्यों साथ मेरा छोड़ा
तूँ ही तो था एक साक्षी हमारा
बता था क्या कसूर मेरा
नाता क्यों उसने मुझसे तोड़ा
रहस्यमय शब्दों में वो बोला
भेद है बड़ा ही निराला
जब वो ही नहीं बता सकती तुझको
फिर भला मैं क्या बता सकता तुम को
दर्द मुझे भी बहुत है होता
देखता हूँ जब कभी तुझे अकेला 
मैंने कहा बस करो
मत दो सहानुभूति इतना मुझे
अपनों के अकेलेपन से
अब मैं हूँ बहुत घबराता
बस तुम इतना जान लो
सत्य को पहचान लो
स्वार्थ से तेरा कोई नाता नहीं
इसलिए बस धुल के धुल हो
उन्हें तुम से कुछ ज्यादा समझा था
ऊँचा उठने का उनमे ललक था
जब मौका हाथ में आया
धुल झाड़कर
उन्होंने दुसरे का हाथ थाम लिया
तेरा यह पथिक बहुत ही था अकेला
दुनियाँ से कुछ अलग
शून्य के अधर में था लटक रहा
आकाश कुसुम को छूने का
दिल में लिए था अरमान
मैं खुद कब
अलग हो गया
टूट कर
वक्त के डाली से
ऊपर था छितराया आसमान
निचे धुल भरा मैदान
सितारों के लोक से
चुरा लिया था एक सितारा
आकर जगमग थोरी देर कर
खुद बन लुटेरा
मुझको लुट कर चला गया
एक तड़पन एक जलन
एक आग दे गया
रोने को बस
दिन और रात दे गया !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' १२-०१-१९८४ 

चित्र गूगल के सौजन्य से 

बुधवार, 8 अगस्त 2012

117 . बंद अरमानों के आँसू

११७ .

बंद अरमानों के आँसू
कागज़ के फूलों पर  
गिरकर बिखर गये
तलहथी पर राई
जमने से
आकाश कुसुम के फूल झड़ गये
बेवफाई के हर अगन के तपन को
गर्म रेतों के खेतों ने
सोख लिए  
जानकार भी अनजान बने रहे  
चकोर की चाहत को चंदा के लिए
भौंरा क्यों मचलता रहता है
फूलों के पास जाने के लिये !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' १५-०१-१९८४
चित्र गूगल के सौजन्य से

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

116 . शुरू करूँ या न करूँ

११६ .

शुरू करूँ या न करूँ
करूँ तो कहाँ से करूँ
कितनी ही बार सोंचा
तुम्हें एक पत्र लिखूं
ढेर सी बातें इक्कठी हो गयी है
कहने को क्या - क्या सोंचुं
सामने रखने को तेरे
जिन्दगी का एक बड़ा टुकड़ा है
ना जाने कभी क्यों
तुमसे कोई शिकायत थी
फिर लगता है अब
मुझे तुमसे नहीं अपने से शिकायत थी
जिन्दगी के उस टुकड़े को
कागज़ पे उतारूँ
या न उतारूँ
जो गुजरी है
तेरे रुसवाई के बाद
तुम तक पहुंचाऊं या न पहुंचाऊं
जिन्दगी का जो हिस्सा
तुम से अनछुआ है
तुम तक पहुंचे
तो शिकायतनामा न कहना
कचरे के डब्बे में डालने से पहले
पढने से पहले फाड़ मत देना
पढ़ कर इसे प्रेम पत्र भी न कहना
नाम देने की
इतनी ही गर इक्षा हो
तो पढ़ कर हँस देना
और फिर मुस्कुराकर फाड़ देना
लिखने को जब तैयार था
तुम हो निकट ऐसा लगा
तेरा मन काफी आत्मीय लगा
तेरे चेहरे की एक - एक रेखा
अपना चिर परिचित लगा
मैं जानता हूँ तुम कौन हो
मैं जानता हूँ तुम कहाँ हो
जानता हूँ तेरा पता ठिकाना
यह भी देखता हूँ
हर पल क्या करती हो
मुझे सब मालुम है
पर तुम्हें तो कुछ भी मालुम नहीं है
शायद मैं कौन हूँ ?
क्या करता रहता हूँ
कहाँ पर रहता हूँ
पता ठिकाना क्या है मेरा
फिर भी मैं कुछ लिखकर
तुम तक पहुंचाता हूँ
मतलब यह नहीं इसका
साथ मेरे तुम चल दो
बस देखती रहो
पल - पल मुझे घिसटते हुए
मर - मर कर जीते हुए
करना ही कुछ चाहो
या देना ही कुछ चाहो
मुस्कराहट एक हलकी
नयी सी दे देना
ताकि छुट जाऊं
मरने जीने की इस झंझट से
और तेरे मन और कन्धों के
बोझ से टल जाऊं
जब तक जिन्दा हूँ
तब तक शायद
तेरे दर्द को
अनचाहे बढ़ाता रहूँ
बस चाहता हूँ
एक मुस्कराहट दे दो
मुझे अपनी जिन्दगी से
दूर बहत दूर कर दो
बस इतना मैं जानता हूँ
सपनों में सोते
दिन में जागते
हर पल दिल में
मन मंदिर में बसा
एक भले से चेहरे की
याद सताती है
हर पल दिल के निगाहों से
उससे मुलाकात होती है
सदा जिसके ओठों पे
मंद मुस्कराहट रहती है
आँखें जिसकी मुक्त हँसती हैं
देखता रहता हूँ अपलक मैं
क्या आँखें भी हँस सकती हैं
एक चुम्बकीय प्रभाव से
खिंचा सा जाता हूँ
जिन्दगी के उलझनों में
जब कभी - कभी है इंसान डूबता
जीने के लिए ढूंढ़ लेता है
एक तिनके का सहारा
अब एक तिनका ही हो तुम
जो हर बार डूबने से है बचा लेता
मेरी जिन्दगी
न तो फूलों का हार है
न हीरे मोती मणि का
बस यह
काँटों का एक बाग़ है
झार झंखारों से भरी हुई
जिन्दगी की हर शाम है
ऐसा लगता है
था सब संजरा संवरा
उखार कर किसी ने
सब कुछ इधर - उधर फ़ेंक दिया
शाम से जिन्दगी को सजाये हुए
जी रहा है यह ' सवेरा '
बार - बार जिन्दगी के
बिखरे हुए हर ईंट को
चुन - चुन कर इकठ्ठा करना
सजाना और गारा लगाना
कच्ची दीवारों को
दृढ होने की आशा करना
बन कर रह गया है
जिन्दगी का एक फ़साना
मेरी जिन्दगी
एक खुली किताब है
जिसे कभी जूनियर ने पढ़ा
और आदर्श मान लिया
कभी किसी सिनिअर ने पढ़ा
और सहानभूति जता गया
बार - बार काई से फिसल
किचर में धंसता रहा हूँ मैं
बार - बार तन मन पे
चोट खाता रहा हूँ मैं
शारीर की आँखों को नजर आता नहीं जो
मन की आँखों से देख लेता हूँ मैं
हर दर्द का एहसास 
सिने में दाब लेता हूँ मैं
दिल में ग़मों का सैलाब है
पर ख़ुशी इस बात का है
ओठों पे अपनी
किसी से मांगी हुई हँसी नहीं है
फिर रास्ता तलाशने लगता हूँ मैं
हर घर से रास्ता निकलकर
शहरों के भीड़ में खो जाता है
मेरा हर रास्ता न जाने क्यों
तुझ तक ही पहुँचता है
पर तुझ तक पहुँचने के रास्तों पर
ना जाने उठ पाते नहीं कदम मेरे
हार कर एक गहरी उदासी
छा जाती है मेरे मन में
मन का कुछ चाहना
क्या गलत है
यातनाओं से भरे
जिन्दगी के बिच
गर ये गलत है
तो फिर सही क्या है
मानस पटल पर मेरे
आकृति एक रेखांकित हो जाती है
सुध बुध खोकर उसके साथ हो जाता हूँ
जिन्दगी का ये पल
खुद से जुदा न कर पाता हूँ
पर एक शिकायत भी है
क्यों आ जाती हो हर पल में
हर इस पल के
छाँव के बाद
जुदाई की जेठ की दोपहरी
उसकी जलन
जिन्दगी को जलाने लगती है
सोंच कर देख लो
जिन्दगी तब कितनी
दुःखदायी लगने लगती है
ऐसे ही पूरी जिन्दगी बीते
तो अभ्यस्त हो जाऊँगा
पल - पल भर का
तेरे यादों का छाँव
कमजोर बना जाता है
तेरे मिलन और जुदाई के बिच
मन तरपता रहेगा
शरीर झुलसता रहेगा
सांस थमता रहेगा
तुम्हें क्या - क्या बताऊँ
हमपे क्या सब गुजरता रहता !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' १५-०१-१९८४
चित्र गूगल के सौजन्य से 

सोमवार, 6 अगस्त 2012

115 . लोग कहते रहे

११५ .

लोग कहते रहे
इल्जाम देते रहे
तुझे अपना कहने को
न जाने यार
क्या - क्या न हम सहते रहे
पर जवाब नहीं तेरा भी
सच को कह कर
हम झूठे हो गए 
तुम झूठ कह कर भी
ज़माने में सच्चे रह गए
वफ़ा का सबक
मुझको सिखलाकर
खुद ही बेवफा बन गए
आशियाँ मेरा जलाकर
खुद अपना जहाँ बसा लिए
रोने को पहले ही
जिन्दगी में क्या कुछ कम था
जो इस तरह
दिल मुझसे लगाकर
खुद अनजाने बन चले
तेरे इस फितरत का
कोई जवाब नहीं है मेरे पास
चंद  तोहमते सर
मेरे लगाकर चल दिए !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' २०-०१-१९८४
चित्र गूगल के सौजन्य से 

रविवार, 5 अगस्त 2012

114 . गर जो आकर

११४ .

गर जो आकर
एक बार मिल जाओ
दिल का गम
दूर हो जाएगा
तुम तो खुश हो ही
दूर रहकर
मैं भी शायद
खुश हो जाऊँगा
पर हाँ
संदेह तो है ही मुझे
मुझसे मिलने से पहले
ना जाने बार - बार
तुम सोंचने क्या लगती हो
कारण जिसके
एक बार मिलन का समय
बार - बार टल जाता है
तेरी बड़ी समझदारी को
भला मैं क्या समझा पाऊंगा
पर अपनी समझ
जिन्दगी में
एक बार ही सही
ऐसा तो बना लो
आखरी एक मुलाकात हो जाए
दिल की धड़कन बंद हो जाए !

सुधीर कुमार ' सवेरा ' १६-०१-१९८४ 
चित्र गूगल के सौजन्य से