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पतझर सी खामोश
वीरान ये जिन्दगी
कैसी उबकाहट
देख रहा हूँ दुनिया को निर्मेश
रेत से निकलते पैर
दल - दल में धँसते
बसंत की कहानी सुनाती
जिन्दगी की ये खण्डहर ईमारत
ज़माने के चौक पे हूँ खड़ा
बन के वफ़ा का पुतला
गुजरते हुए वही पत्थर मारते हैं
जो घोंटते हैं वफ़ा का गला
नजरों को नज़र से छुपाते हैं
दिल की नजर को छुपायें तो जाने
उठी उमंग को प्यार का नाम दें
दुनियाँ की दीवार को तोड़कर
हकीकत को अंजाम दे
चंद दिनों की ये बहारें
उस से भी कम ये सावन की झड़ी
जिस्म में जलते अंगारे
चाहती हैं पाने हुस्न के शोले !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 09-06-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से
पतझर सी खामोश
वीरान ये जिन्दगी
कैसी उबकाहट
देख रहा हूँ दुनिया को निर्मेश
रेत से निकलते पैर
दल - दल में धँसते
बसंत की कहानी सुनाती
जिन्दगी की ये खण्डहर ईमारत
ज़माने के चौक पे हूँ खड़ा
बन के वफ़ा का पुतला
गुजरते हुए वही पत्थर मारते हैं
जो घोंटते हैं वफ़ा का गला
नजरों को नज़र से छुपाते हैं
दिल की नजर को छुपायें तो जाने
उठी उमंग को प्यार का नाम दें
दुनियाँ की दीवार को तोड़कर
हकीकत को अंजाम दे
चंद दिनों की ये बहारें
उस से भी कम ये सावन की झड़ी
जिस्म में जलते अंगारे
चाहती हैं पाने हुस्न के शोले !
सुधीर कुमार ' सवेरा ' 09-06-1980
चित्र गूगल के सौजन्य से