२९२. तुम्हारी याद मेरी जिन्दगी का हासिल है ! तुम्हारी याद में कायम है जिन्दगी मेरी !! कि निगाहें आपकी याद आ रही हैं ! मुझे देखा था आपने जिस नजर से !! जब तलक मिले न थे तुझसे कोई आरजू न थी ! देखा जो तुझे तेरे तलबगार हो गए !! अब इस फ़िक्र में ही रात दिन कट रहे हैं ! तुझे भूल जाएँ , या खुद को भुला दें !! चाहकर इस कदर जो भुला दिए तुम ! दिल ही जानता है जी रहे हैं किस दिल से हम !! ऐसा आसाँ नहीं मोहब्बत करना ! यह काम उनका है जो जिन्दगी बर्बाद करते हैं !! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १९ - ०६ - १९८४
२९१. दिल जिनसे लगा बेमुरब्बत से वो छोड़ गए ! इंतजार की आखिर दवा मौत ही है !! तुझसे दिल लगा कर इतना ही मिला ! जब आई तेरी याद आंसू निकल आये !! शामिल नहीं है जिसमे तेरी मुस्कराहट ! वह जिन्दगी भी किसी जहन्नुम से कम नहीं !! अभी से क्यों छलक आये तुम्हारी याद से आंसू ! अभी छेड़ी कहाँ है दास्ताने जिन्दगी मैंने !! बेवफाई को भी वफा समझा ! हमने जालिम तेरे ख़ुशी के लिए !! अपनी तन्हाई व साये से लिपट कर सो गए ! रख के अपने दिल पे गम का पत्थर सो गए !! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १९ - ०६ - १९८४
२९०. चलती हैं आप सीना उभार के पैरों में परे को ठोकर मार के क्या आप ही एक जवाँ है और कोई जवाँ नहीं ? बाँकी दिल में कोई न अरमान रहे ! या रब इस दिल में वो लाखों बरस रहें !! भींगे हुए बालों से जो झटका उसने पानी झूम कर घटा छाई , टूट के बरसा पानी !! मुझे तेरी आँखों से सदा सरोकार रहेगा ! जी कर भी दिल तो सदा बीमार रहेगा !! याद उनकी जो आयी बेगैरत से आँखों से आंसू निकल पड़े मुद्द्त के बाद गुजरे जो हम उनके गली से ! सितम करने वाले क्या तुमको पता है ! मेरे दिल की दुनियां है वहीँ तूं जहाँ है !! दिल को चुरा के खाक में मुझको मिला दिया ! जिन्दगी तो चार दिन की थी उसे भी जिन्दा जला दिया ! लोग कहते हैं रात बीत चुकी ! उन्हें समझाओ मैं शराबी नहीं !! सबको अपनी ही सुनाने की पड़ी है ! मेरी कौन सुनेगा किसको मेरे सुनने की पड़ी है !! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १९ - ०६ - १९८४ ८ - २४ am
२८९. यहाँ किसी को भी इश्के आरजू न मिला ! किसी को हम मिले और हमको तूं न मिला !! दिल ने चाहा था उनको इस कदर कभी ! कि दिल से उनकी याद आज तक न गयी !! और क्या देखने को बाँकी रहा ! दिल लगा कर आप से सब देख लिया !! दोस्त जो बना रहता वो या रब क्या होता ! दुश्मनी पे भी उनके प्यार मुझको है आता !! हमने देखा कुछ रात गए कुछ रात रहे ! हर पर्दानशीनों को निकलते हुए !! रात ऐसी नींद नहीं कहानी बनी ! हाय क्या चीज है जवानी भी !! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १९ - ०६ - १९८४
२८८. इंतजार - इंतजार जिन्दगी को मौत का है इंतजार इंतजार - इंतजार बेवफाई की राह में वफा का है इंतजार इंतजार - इंतजार जिन्दगी को मौत का है इंतजार गम की दुनिया में बेबसी के मारों को अँधेरी दुनियां में रोते बिलखते इन्सानों को झूठे आशा का है इंतजार इंतजार - इंतजार सुनी - सुनी राहें आंसू हैं तन्हा जीवन का साथी बेचैन राहें मेरी जिन्दगी तुझको पुकारे धुप छाँव में सर्दी गर्मी से ठिठुरती अरमाने कह रहा है ये दिल आज तुम ही हो मेरे प्यार तेरा ही है इंतजार , इंतजार - इंतजार सुधीर कुमार ' सवेरा ' १९ - ०६ - १९८४
२८७. पल में अतिशय उल्लास भर देती क्षण में संत्रास यही है जीवन का आभास दंभ व्यर्थ मनुष्य को अपने पौरुष पर काल का चक्का हाथ में जिसके वो बैठा है नभ पर अक्ल तेरी जितनी भी भली बुद्धि तेरी जितनी भी बड़ी अनायास ही क्यों क्षणिक यह तेरा अहंकार काल के सामने तूं है बिलकुल लाचार ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २१ - ०५ - १९८४ १२ - ५७ am कोलकाता
२८६. मेरे बीते दिन को न छेड़ दफनाये अतीत को न कुरेद कहानी वो खामोश होने दे जिंदा लाशों के पात्रों के शिवा कुछ भी नहीं हाय रे किस्मत कहाँ गए वो दिन ? मेरे अतीत के धुंधलके में बेवफाईयां चमकते हैं सितारे बनके मद्धिम सी रौशनी अब भी मेरी उजड़ी हुई राहों का पता बताती है राहें जो मेरी मंजिल की ओर जाती थी अब उस मंजिल का ख्याल भी शायद मेरे पास है नहीं हाय रे वक्त दिल ने फकत पहली वो तमन्ना की थी पुरुस्कार में अनगिनत दाग मेरे दिल पे पड़े वाह मेरे महफूज सितमगर वो मेरे अतीत के आवाजों मेरे कानो तक न आओ अतीत का नाम मेरे सामने ना दुहराओ मेरे अतीत में काबिले जिक्र कोई बात नहीं छेड़ कर कहानी ऐसी होगा क्या हासिल तुझे जिस से इन्सान का दिल दुःख जाये हाँ ये मुमकिन है याद कर अपने अतीत को अपने चेहरे को झुलस डालूं मैं यारों इतना एहसान करो मेरे अतीत की दबी राख रहने दो अगरचे नामुमकिन नहीं कोई चिंगारी उड़ जाये और जिन्दगी के खलिहान में आग लगा दे जिन्दगी अब भी गर खुशहाल नहीं फिर भी अतीत से मेरे कहीं बेहतर है ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २०- ०४ - १९८४ ११ - ३० am
२८५. तेरे बीमार विचारों को तेरे कमजोर निगाहों को तेरे स्व के अहंकार को तेरे शामों की कालिमा को गहराती शाम अपने दामन में समेट लेती है सुबह का सूरज तेरे बदन पे दाग लिए आता है तेरे मानसिकता से ओझल होती मानवता की बाती तेरे साँस के बोझ से दबता तेरा परिवेश मैं अपनी दानशीलता समर्पित करता हूँ तुझको ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १९ - ०६ - १९८४ १२ - १५ pm
२८४. मोहब्बत की तारीख को भूलता नहीं दीवाना ! आग लगाने से भला कब चुकता है जमाना !! महबूबा बनी शाकी तो शराब ऐसी पी ! होश जब आया तो गम न पाया पी !! हाथ में डिग्री थी घर में बीबी थी ! जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं नसीब इतनी खोटी थी !! दुत्कार और फटकार अल्ला से मिला है प्यार में ! गरीब को कोई गिला नहीं , ना ही जीत में ना ही हार में ! कांटे बिछे हों राहों में , आंसू बहे जीवन भर ! तुम भी कांटे चुभोते रहो उफ़ न करेंगे जन्म भर !! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १९ - ०६ - १९८४ १२ - ०७ pm
२८३. नभ के उर में बसती बादलों की आह मेरे आकाँक्षाओं की हर साँस में बसती तेरे मधुर स्पर्श की चाह ! रूठना मेरे किस्मत को मेरे जिंदगी से था रूठ जाओगी तुम मुझसे ये मालूम न था ! दरो दीवार पर मेरी नजरों ने तेरी तस्वीर बना दी थी ! एक हल्की सी चोट लगी और शीशे की तरह दीवारें ढह गयी !! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १९ - ०६ - १९८४ ११ - ४५ am
२८२ . तपते अरमान तपता तन तपती अभिलाषा तपता मन तपती चिंताओं में विचरता तपते नैनों का तपता चिंतन तपती आशा में तपती चाह तपते ओठों से निकलते तपते आह तपते पथिक और तपती राह तपते मौसम में तपती प्यास तपते पेड़ों की तपती छाँह तपते विचारों की तपती परिभाषा तपते कल्पनाओं की तपती मंजिल तपते सावन की तपती बरसात तपते आंसू की तपती उदासियाँ तपते मौन की तपती अभिव्यक्तियाँ ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १९ - ०६ - १९८४ ११ - ४२ am
२८१. कुछ लोग सिर्फ जान लेते हैं जहाँ में और कुछ जान दे देते हैं इस जहाँ में फितरत उनकी भी कुछ ऐसी थी जो हम लुटे लुट गया जहाँ मेरा उन्हें हम बस याद करते रहे उन्हें रहा न याद मेरा हम करते रहे हुस्न की आत्मा से प्यार उन्हें मेरे जिस्म से ही था थोड़ा प्यार काश जो थोड़ी सी भी उनको पहचान पाते आज इस तरह न पछताते होते ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०४ - ०६ - १९८४ १० - १५ am राँची
२८०. हर याद तुम्हारी बहुत बेरहम है हर मुलाकात तुम्हारी बेहद जालिम है कितने तारीखों को हमने अपने तारीख से जुदा कर डाला एक तेरी ये नामुराद याद मेरी जान पे आ बनी है ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ०३ - ०५ - १९८४ १ - २९ pm
२७९. सुधीर कुमार ' सवेरा ' धैर्य और सहन हर सीमा का अतिक्रमण सिले ओंठ लिए जख्म दर्द का उबाल निकले भाप बन गए मेरे कविता के शब्द आशा की अतृप्त प्यास भटकन बनी है जिंदगी असफलता की निरंतर प्राप्ति उपहास बनी है जिंदगी ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २८ - ०४ - १९८४ ११ - २० am कोलकाता ०३ - ०५ - १९८४ ९ - २२ am मिथिला एक्सप्रेस
२७८. फूंक - फूंक कर संभल - संभल कर रखे पग सूखे पत्तों की चरमराहट गुम हो गयी ऐसी आयी पाँव की आहट जो मेरा था कहते हैं सब वो एक सपना था आयी थी वो मर्मस्पर्शी आवाजें गूंज - गूंज दिल का हर कोना गया था झूम झूम सब कहते रहे दूर रहो है वो एक सुन्दर छलना मैं भूल गया उसमे इतना डूब गया याद आयी खुद की तब ऑंखें खोल देखा जब आंगन अपना सुना वो निर्मोही तूं क्यों आयी मन मंदिर में मेरे बन सुन्दर ऐसी ललना तेरे बाग में कोई न कोई हर पल रहा चाहे हो वो गुलाब या गेंदा पर सब कुछ रह कर भी मैं तो रह गया सुना सुना ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २७ - ०४ - १९८४ ९ - २२ pm कोलकाता
२७७. तुम्हारी वो दिल्लगी थी मेरे दिल को लगी तेरे लिए वो खेल था मेरे तो जान पे आ बनी तुझे शायद न पता था पर मैंने तो बता दिया था मैं बड़ा सुकोमल कचा घड़ा हूँ जानकर ही तूं इस काबिल बनी मुझे यूँ ठोकर मारा मैं न घर का रहा न घाट का तूं तो फिर भी किसी घर की हुई मैं हर बार किसी घाट पे बिकता रहा ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २७ - ०४ - १९८४ ३ - १८ pm कोलकाता
२७६. कहे अदरख मैं हूँ एक करूँ ठीक रोग अनेक हो अरुचि , पेट में वायु या अपच और मुख स्वाद हो या कब्ज विधि - एक चम्मच अदरख का रस एक चम्मच निम्बू का रस खायें नित्य हर दिन तीन बार हो बुखार खांसी या जुकाम या जाये जो कभी गला बैठ एक चम्मच अदरख का रस एक चम्मच शहद मिलाकर लें चार - चार घंटे बाद करें दूर उपर्युक्त व्याधि गर जो हो रही हो हिचकी चूसें काटकर अदरख थोड़ी गर जो हो रहा हो दस्त कर रहा हो आपको पस्त है यह इलाज बेहद ही सस्ता आधा गिलास गरम पानी उबालकर पी जाएँ दो तीन बार एक चम्मच अदरख का रस डाल कर कान दर्द जो हो जाये किसी कारण से अदरख का रस छानकर दो - दो बूंद कान में डालें हल्का - हल्का गर्म कर वायु दर्द गर जो हो साइटिका , घुटने कमर व जांघों में एक चम्मच अदरख के रस में आधा चम्मच घी मिलाकर सुबह शाम सेवन करें कहे कविराज गुण ये अदरख के जानिए सत्य जान इसे व्यवहार में लाइए ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २७ - ०४ - १९८४ १२ - १० pm कोलकाता
२७५. चारों ओर व्याप्त भूमंडल पर आत्मा सबों की मुमूर्ष हैं अकोविद बांचता ज्ञान धर्म सबको घेड़े प्रचंड व्याधि मेरा - मेरा सब चिल्लाये मेरा क्या ? जाने ना कोई हो सभी पथ भ्रष्ट करते आलोकित पथ हो गयी विवेक शून्य यह वसुंधरा हो सोमवती गिरा अपना वज्रदंड दूर हो ये तमस्कांड ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २७ - ०४ - १९८४ १० - ३९ am कोलकाता
२७४. सत्य को व्यंग कह कर लोग नकार देते हैं असत्य को ही सत्य समझकर लोग स्वीकार करते हैं सरकार जनता को अपंग समझकर हांक देती है प्रशासन ईमानदारी को बेबकूफी समझकर टाल देती है मानवता की दुहाई देती है वकील सच्ची कसमे खाकर झूठ को सत्य करार देती है नेता हर बार लोगों का पेट वोट के लिए बड़े - बड़े आश्वासनों से भर देती है ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २७ - ०४ - १९८४ ११ - १५ am कोलकाता
२७३. कलम मेरे तूँ न रुकना रहो निरंतर प्रवाहित अन्याय के सामने कभी न झुकना क्षण जितने संघर्ष के गुजरे उसे ही खुशियाँ समझना दिल के कितने निर्मल हो तुम कर काले सफ़ेद पन्ने को देते हो जीवन के संगीत तुम एइयासी में कभी जाना न डूब अपने को कभी जाना न भूल मृत्यु हर पल तुझको पुकारे प्रवाह निरंतर रखना तुम कभी भूले भी न रुकना तुम किसी कीमत पर न झुकना तुम मेरे प्रिय कलम तूं बहता जा जीवन के संगीत सुनाता जा ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २७ - ०४ - १९८४ १० - २५ am कोलकाता
२७२. भविष्य की राह में चंदा की चांदनी बिछी है दुनियां की हर चाह में उसकी लोभ घुटी है मन की मनमानी सड़क पर प्यार का सिर्फ तराना दिल की लगी पर दिल्लगी से सिर्फ हँसता जमाना डगर डगर में है चंदा के किरणों का झुला जो भी इससे है गुजरा वो ही है रास्ता भुला तितलियों की बारातें उपवन को रिझाएँ दूर बहुत दूर से बहारें बुलाएँ शीतल मंद - मंद बहे बयार पर्दे में छिप - छिप शरमाये यार टेढ़ी - मेढ़ी खेतों की क्यारियाँ उसपे अल्हर सी जवानियाँ समय बीत रहा गीत गाता घेरा डाले हुई है बेसुध सी बदरिया शरमाते मुस्कान खिलते अरमान प्यार की थपकियों का लिए एहसान कहना सचमुच कुछ भी कितना सरल है वादा निभाना सचमुच ही बेहद कठिन है दुनियां की बात कह हर साँस मिटी है भविष्य की राह में चंदा की चांदनी बिछी है ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २० - ०४ - १९८४ ३- ३० pm
२७१. सब खोये - खोये सोये थे खट - खट - खट एक आवाज आत्मा के बिन द्वार के घर में धर्म निष्प्राण हो सोये पड़े थे बंद परतों के हर परत में लिपटी हुई संत्रासें सोई हुई विचारें विवेक और भावनायें मृतप्राय सहानभुतियाँ परोपकार और त्यागें मानवता की कल्पनायें सब कुछ बंद साउंड प्रुफ कमरे में जब खड़े हो दरबान में लोभ , मोह , ईर्ष्या , द्वेष छल , कपट , झूठ और फरेब हर दस्तक हो जायेगा गलत प्रतिध्वनित बातों से किसी पे असर नहीं होता निस्तेज अर्थहीन दरवाजे पर निष्प्रयोजन ही हर आवाज बोलती है खोलो दरवाजा दस्तक है दस्तक - दस्तक है बाहर घर का सही मालिक खड़ा है ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २० - ०४ - १९८४ १२ -३९ pm
( उज्जवल सुमित ) २ ७ ० . स्वपनिल संसार ये सारा या आंखे मेरी उनिन्दें भटके यूँ मारा - मारा काली स्याही से पुती हर घर की उजली दीवाल नफरत क्यों मेरे सांसों में घुटी तेरे शब्दों का छलन खा गयी मेरी निर्दोषिता भर गयी सीने में एक जलन हर लम्हे की ये उदासी देकर तुझको खुशियाँ सारी मेरे जीवन में क्यों छायी ? सुधीर कुमार ' सवेरा ' २ ८ - ० ६ - १ ९ ८ ४ १ - १ ५ pm कोलकाता
( उज्जवल सुमित ) २ ६ ९ . मेरे नयनों की चाहत में दिल जिनके बेचैन रहा करते थे आज ये नैन हुए हैं बेचैन उनके लिए पर उनके दिल को अब इसकी परवाह कहाँ मेरे नैनों की सुन्दरता का बखान करते जिनके ओठों पे थकान आती नहीं थी मेरे आँखों से जिनके जीवन की आशा का सन्देश मिला करता था जो इन आँखों में अशुओं की बूंद देख नहीं सकती थी वो आज गंगा जमुना बने इन नैनों की तरफ देखना भी उन्हें गंवारा नहीं ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ४ - ० ६ - १ ९ ८ ४ ८ - १ ५ am
( उज्जवल सुमित ) २ ६ ८ . जलते अलाव से निकलती चिंगारियां वन के जड़ से कटती मिटटी उल्लू की चीख से गूंजती अमराईयाँ बोझिल पलकों पे उनिन्दे सपने कफ़न के बिना जलती चिताओं का दाह पेट में उठती मरोड़ सांसों में बसती क्षुदा की आह ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ८ - ० ५ - १ ९ ८ ४ १ २ - ० ० am
२ ६ ७ . उनके आंसू बहे थे उनके ख़ुशी के लिए उनके ख़ुशी थे मेरे आंसुओं के लिए जब दर्द का साया मुझको आ घेरा खुशियाँ हो गयी उनके लिए ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' ० ४ - ० ६ - १ ९ ८ ४ १ ० - ० ० am राँची
२ ६ ५ . अरे ऐसे भी क्या जीते हो हँसते - हँसते जीना सीखो हर पल हर गम में हर असफलता और निराशा में जीना हो तो हँसना सीखो जब कुछ ना भाये मौसम भी बदरंग लगे बस जरा सा हँस दो हँसते ही सब लगे सुहाने कुछ खट्टी कुछ तीखी बातें जब भी सुनो कड़वी कोई करे कभी अभद्रता या कोई गाली देता बस जरा सा हँस कर देखो लगेगा न कुछ भी बुरा किसी बात से गर तकलीफ हो बस जरा सा हँस कर देखो ऐसा कर पाना सहज नहीं पर ऐसा निश्चित मानिये मुस्कुराहट आपकी व्यर्थ नहीं जाएगी ऐसा ही जानिए ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' २ ५ - ० ४ - १ ९ ८ ४ ९ - ५ ३ am कोलकाता
२ ६ ४ . शरीफ हैं वो जो सामाजिक राजनीतिक और सरकारी गुंडों से त्रस्त हो जो सब कुछ सहता हुआ सहमता हुआ हर अन्याय पर भी खामोश हो हर आशा जिसकी बेवफा हो लोगों ने सिर्फ जिससे विश्वासघात किया हो ! सुधीर कुमार ' सवेरा' ' २ ६ - ० ४ - १ ९ ८ ४ कोलकाता ६ - ५ ० pm
२ ६ ३ . अंकित दीवार खड़ी थी मेरे आत्मा की धरोहर जिसमे पड़ी थी बाहर से मैं पुकारता रहा सभी सुन - सुन कर भी ऊंघते रहे मेरे अधरों से उखड़े - उखड़े गीत उड़ते रहे रौशनदान से गंदली धुप घर को मटमैला करती रही प्यासा मेरा रक्त मैं खोजता रहा हर जददोजहद से दूर अपने वजूद को ढूंढ़ता रहा खाली - खाली सब कुछ था बन के मैं एक प्रतीक्षा का पात्र त्यक्ता की तरह बाहर खड़ा था ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४ ४ - ४ ५ pm
२ ६ २ . अवसादों से लिपटा तंग अरमानों के फूल कंपकपाती तृष्णा की लहर अर्ध खिली नन्ही पंखुरियां वृक्ष विशाल ढह जाते न्यूनतम आकांक्षा घासों के मैदान बन कभी नहीं उखड़ते डर उसे ऊँची डाली पर जिसके घोंसले डर तितली के घर को क्या ? पंखुरियों को घर आँगन ऊपर विस्तृत नभ उपवन की उन्मुक्त साम्राज्ञी मौसम तो रंग अपना बदलता रहा उसे अवसादों से क्या लेना निरीह मन अभिलाषाओं का फूल सपनो को सिर्फ भाये है यह एक गंध हीन फूल ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४ ० ४ - ० ८ pm
२ ६ १ . अहं की तंग घाटी में हर नया पौधा जन्म लेता पर फूल नहीं देता नदी से निकली नहरें नहीं नाले का पानी बहता जो गुजरा सो गुजरा समय रहते चेतो अब भी वक्त है अपने आप को रोको एक - एक कतरा हर क्षण को सम्पूर्णता से भोगो ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४ ३ - ५ ० pm
२ ६ ० . काल का अबाध चक्र और परिस्थितियों का दास मनुष्य हाँक दिया गया है इंसानियत का पटाक्षेप हो गया है नेपथ्य से आवाजें गूंगी हो गयी है मानवता का पगडण्डी संवेदनशील मोडों से तलवार की नंगी धार कलेजे पे सजायी हुई थी धार जिसपे रक्त मेरे जमे थे और ऑंखें मुंद चुकी थी शायद अमावश्या की रात थी हाथों को हाथ नहीं सूझता था शीश कहाँ नवाता ? मंदिर नहीं दिखता था संज्ञा शून्य हो क्षितिज के उस पार विचर रहा था मैं मृत्यु के नभ में ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४ ३ - ५ ० pm
२ ५ ९ . ज्वार भाटा और समुद्र का किनारा तनहा परछाई अव्यक्त हाव भाव निरीह आराधना श्रवण शक्ति के लिए कमजोड पड़ गयी समुद्र की भीषण गर्जना निर्विकार सउद्देश्य खड़ा मूर्तिमान खंठ से मेरे अज्ञानवश एक प्रश्न उभरा मित्रवर्य ! क्या कुछ खो गया ? जवाब में एक निश्छल निराकार मुस्कराहट और दृष्टिबोध से दूर सामने समुद्र की शून्य ओर उठती हुई उसकी ऊँगली के इंगित स्थान ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४ ३ - १ २ pm
२ ५ ८ . अकुलाहट भरी फुसफुसाहट शायद तूफान के आने का इशारा आवाज के रेगिस्तान में प्यासे भटकते श्रोता जाम पीते वक्ता मन का मीत अन्दर की चीख विपन्न गायक घुटता रहा निगल गया शायद उसको मानवता का गीत दीवार खड़ी थी सड़ी समाज की भीत भाग नहीं पाया धूम्र का गोल - गोल वलय बन शायद खो गया अभोग से ऊबकर शायद गुम हो गया कहने वाले के लिए फिर भी कुछ रह गया छिद्रयुक्त समाज की भीति हिली चरमराई और ढह गयी किसी बिना कानो वाले नगर में आवाजों की चीख भर रह गयी ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४ २ - ५ ० pm
२ ५ ७ . अर्ध खिली चाँदनी अगम्य अपार बोध गम्य इन्द्रियों के उस पार व्याधि रहित सार गम्य चाँद के उस पार खुला - खुला गोरा आसमान दूर से गूंज आयी स्वरों की मधुर लहरी शायद झील के उस पार तर्क हीन वृथा का दम्भ सारगर्भित मन का आकुल आनन् और सभी दरवाजे बंद अन्जान सुनसान रिक्त राहें चाँद कब खिला पता नहीं शायद दिवास्वप्न था इक्षायें ही तो नहीं मरती जाग कभी पाते नहीं रह जाती है वही पूर्व स्थिति ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४ २ - ३ ८ pm
२ ५ ६ . मोडदार कोमल पगडण्डीयां सुराहीदार घुमड़दाड़ सीढियाँ खांचेदार खजुराहो की विभिन्न मुद्रा तप्त - तप्त आँखें और और अदायें लाल दल पत्र खिले मंद - मंद विहंस रहे हाथ बांध हैं खड़े सबकुछ होकर भी पास - पास सदियों से अंक में भरे हैं अनबुझी अतृप्त प्यास ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ० ४ - १ ९ ८ ४ २ - ३ ० pm
२५५ . सघन चमन मधुर - मधुर पवन मंद - मंद लय से मृद -मृद थिरकन छायी हुई है हर ओर क्या वन क्या उपवन क्या अर्वाचीन क्या प्राचीन रूप , रस , गंध के उस पार अर्थहीन रागहीन हतभाग अमरता को प्राप्त करता कह कहों से भरा हर मुग्ध क्षण ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ९ - ४ - १ ९ ८ ४ २ - २ ० pm
२ ५ ४ . एहसास मुझे हर सही गलत का होता है ऐसा लगता है एक अनाम अपराध का झूठा कलंक मेरे माथे लगा है मेरे प्रारब्ध ने मेरे ही खिलाफ गलत सूचनाएं सब को दे दी है लोग सभी ढूंढ़ रहे हैं अपना भी चेहरा खरोंच कर मेरे लिए गलत सूचनाओं का ढेर लगा रहे हैं ! सुधीर कुमार ' सवेरा ' १ ६ - ० ४ - १ ९ ८ ४