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जननी
क्षमा समुद्र क्षमिय अब जननी कयलहुँ चुक हजारा हे।
जननी उदर जखन हम अयलहुँ - कयलहुँ धर्म विचारा हे।।
अबितहिँ एतय सकल हम बिसरल राखल किछु ने विचारा हे।
धर्म सनातन मर्म न जानल नव - नव सिखल अचारा हे।।
ज्ञान बिना हम ज्ञानी बनलहुँ धर्म - कर्म सौं न्यारा हे।
परमारथ परलोक बिसरलहुँ डूबय चाहिय मझधार हे।।
आर उपाय किच्छु नहि सुझय तुअ पद एक अधारा हे।
सत्य वचन जय जय करुणामयि दीनक सुनिय पुकारा हे।।
अहिँक सकल माया थिक जननी लक्ष्मीपतिक अधारा हे।
लक्ष्मीपति ( तत्रैव )
2 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 13 मार्च 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर। होली की शुभकामनाएं ।
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