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धूमावती
धयल षोडसी श्यामा सुषमा धामा अपन नयान।
कयल त्रिपुर - सुन्दरी नयन - अभिरामा अनुखन ध्यान।।
कर - कमला कोमल कमला कय ह्रदय - कमल सन्धान।
तारिणि तारा तरल द्वितीया दिस टकटकी निदान।।
छली शारदा हमर उपास्या वीणा पुस्त संग।
स्मितमुखी गीत कवित संगीत ललित लय भरथि उमंग।
अथवा मदिरारुण - नयन मधु - वयना छवि छविवंति।
घर - आँगन चानन छिटकाबथि भरथि सुरभि रसवंति।।
किन्तु नियत छल , उचरल मंत्र अदृष्ट , दुष्ट परिणाम।
इष्ट बनलि आयली घर हमर अदृष्ट देवता वाम।।
धूमावती सती , वयसा वरिष्ठ , वचसा कटु क्लिष्ट।
रूप बिरुपा , प्रकृति अनूपा , कृतिहु विकृत , नहि शिष्ट।।
मलिनवसन घर - द्वारि बहारथि बाढ़नि हाथहि नित्य।
जेना कोनो आयलि छथि वेतन - भोगिनि कोनहु भृत्य।।
सूप हाथ किछु किछु सदिखन फटकैत अन्न भरिपुर।
बिच - बिच गुन - गुन सोहर लगनी गबइत बिनु धुनि सूर।।
शययागृह सँ भनसा - घर जनिका रूचि बढ़ल विसेष।
जे पड़ोसिनिक बात पुछै छथि , खबरि न देश - विदेश।।
ज्ञान जनिक बच्चा - जच्चा धरि ध्यानों धरे कुटुम्ब।
अक्षर जनिक गोसानि नाओं धरि पोथी पतरा लम्ब।।
मन छल विमन , कोना खन काटब विरुचि , न रूचि विज्ञानं।
दृगक प्यास भेटैत कोना ? ताकल भगवति भगवान।।
देखल अहा ! भगवति ! धूमावती निरूपित रूप।
स्वयं महाविद्या परतच्छे तन - मन सबहु अनूप।
स्वर्ण अन्न सँ भरल सूप , बाढ़नि स्वच्छता प्रतीक।
श्रमक स्वास्थ्य - सौन्दर्य दिव्य आन्तरिक रूप रूचि लीक।।
पुनि छलि लगहि छिन्नमस्ता करइत जे नव - संकेत।
छिन्न अपन मस्तक कय उर - रुधिरहु दय भरी निकेत।।
विदित महाविद्या धूमावति हमर देवता इष्ट।
धन्य जीवनक क्षण , क्षणभरि यदि दर्शन पुरल अभीष्ट।।
श्यामा उमा अन्नपूर्णा सभ एतय समन्वित रूप।
धन्य कयल अनुरक्त भक्तकेँ , जयतु देवि अनुरूप।।
सुरेन्द्रझा ' सुमन '
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